माना यह अपना त्यौहार नही
पर ऐसी तंगदिली भी जरूरी नही
दुनिया मनाती सिर्फ़ एक नववर्ष है
हमें दो मनाने से इंकार क्यों हो
दूसरों के त्यौहार मनाना बड़प्पन है
हम जग में सबसे उदार क्यों न हों।
धुँध और कोहरे से ठिठुरती पृथ्वी पर
क्यों हर्ष और उल्लास का घोषण न हो
जब शीत ऋतु में लोहड़ी, संक्रांति मनाते हैं
तो पहली जनवरी पर परहेज क्यों हो
जब पंचांग यह हम सब ने स्वीकार्य किया
तो पौष में मस्ती की लहर क्यों न हो।
बसंत पर तो प्रकृति मेहरबान है
फूलों और त्यौहारों की भरमार है
तो ठिठुरती सर्द धरा पर हम
क्यों न कुछ गहमागहमी कर दें
सूने से इस प्रकृति के आंगन में
खुशहाली के सतरंगे बीज बो दें।
यह माना यह हमारी रीत नही
पर हम दकियानूसी क्यों बन के रहें
व्यवहार अपना बदल कर हम
जग के रंग में क्यों न शामिल होएँ।
इस नववर्ष पर ठंड से सिकुड़ती धरती पर
हम सौहार्द और आनंद का हल्ला बोल दें।
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ ।