यही हूँ मैं

यह सच है कि कुछ बदल गई हूँ मैं

उम्र बढ़ने पर अब ढल गई हूँ मैं 

हाँ, यह सच है कि बालों की चाँदी छिपाती हूँ मैं

लड़की से औरत बन गई हूँ मैं।

सबको किसी तरह संभाला के रखा मैंने

खुद को संभालने का वक्त आया तो फैल गई हूँ मैं 

अपनी जरूरतों को जोर शोर से पूरा करती हूँ मैं 

क्योंकि स्वावलंबी बन गई हूँ मैं।

रिश्तों को निभाने की पूरी कोशिश करती हूँ मैं

जो न निभे उनका रंज अब नही मैं करती

खुद को धरती समझा ही नही कभी मैंने 

इसलिए बेवजह का बोझ ढोती ही नही मैं ।

सलाहें अब खूब देती हूँ मैं

चाहे स्थिति समझ के बाहर हो, चुप नही रहती हूँ मैं

ज्ञान अपना बेहिचक बाँटती हूँ मैं

खुद को पहले से बेहतर समझने लगी हूँ मैं ।

सासू जी को सास ही मानती हूँ मैं 

हर माँ सास बनने का सपना ही देखे

बेटी वे मानती नही, तो बहू ही रही हूँ मैं

वो भी खुश हैं और खुश रहने लगी हूँ मैं।

तोल- भाव करना मैंने अब छोड़ दिया

जो कमाया है,यहीं लुटा के जाना है, सोच लिया

इसलिए खुद पर खर्चने लगी हूँ मैं 

अपनी सारी हसरतें पूरी करने लगी हूँ मैं ।

बच्चों को रखती हूँ  अभी भी अंकुश में

डाँटना-चिल्लाना तो कब का मैंने छोड़ दिया 

नजरों से उनको अनुशासित करती हूँ मैं

माँ हूँ, यह कभी उन्हें भूलने न देती हूँ मैं ।

जानती हूँ खुद को सँवारना-निखारना

आत्मा पर मैल चढ़ने न देती हूँ मैं

पहले से अब ज्यादा निखर गई हूँ मैं

क्योंकि खुद की आलोचक बन गई हूँ मैं।

सहेलियों के साथ मैं वक्त हूँ गुजारती

शरीर के साथ आत्मा का सृजन भी हूँ करती 

माँ -बाप के बुढ़ापे का सहारा बन रही हूँ मैं

अपनी जिंदगी की कविता खुद लिख रही हूँ मैं ।

हर नए दिन को चुनौती देती हूँ मैं

वक्त को साथ लेकर चल रही हूँ मैं

चाल चाहे मस्त हाथी सी हो गई हो मेरी

जमीन से सदा जुड़ी रही हूँ मैं।

खुद से पहचान तो बहुत पहले से थी

खुद को अब प्यार करने लगी हूँ मैं।

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