आज सुबह से मैं वैसे ही जली भुनी बैठी थी
तुम्हारी बारिश ने ठंडा कर दिया।
मुझे आज जब कच्चे आम खरीदने पड़ें
सच्च कहती हूँ, तन मन में आग सी लग गई।
सारा बचपन आम, अमरूद,बेर,
जामुन तोड़ तोड़ खाये हैं
अब कहते हैं, मोल लेने पड़ेंगे!
बचपन तब कितना याद आता है
कैसे मैं करूँ ब्यान!
और फिर बारिश तो न जाने
हर साल कहाँ फुर्र हो जाती
बस उमस से ही सावन में
हर साल दो चार हो जाते हैं
किश्तियाँ तो यहाँ कहाँ,
बाल्टी की हो कर रह जातीं हैं।
बच्चे कभी न पेड़ों पर चढ़े हैं
यहाँ पेड़ों पे चढ़ने की क्लासें लगतीं हैं!
इमारतों के इस जंगल में
सब ऊपर चढ़ने की होड़ में हैं।
इतवार की क्या बात करें
बस घर के ही हो रह जातें हैं।
इस कच्चे आम ने कमबख़्त
सारे वो ज़ख्म हरे कर दिए हैं
जिनको यादों में दफना कर
हम ज़िंदगी बनाने निकले थे।